छोटे शहरों से आए हुए हम कुछ लोग,
बड़े शहरों में बस तो गए हैं, पर दिल रह गया है कहीं और…

कभी-कभी बहुत याद आता है,
नानी के घर के लाल पेड़े का स्वाद,
जो आज तक किसी मिठाई में मिला नहीं।

चूल्हे पर बनी रोटी पर चुपड़ा घी,
वो सोंधी खुशबू मन में बसी हुई है अब तक

दादी के घर की छत और वो कभी न खत्म होने वाली कहानियाँ,
अमरूद के पेड़ पर चढ़कर खेलना,
ट्यूबवेल के पानी के संग दौड़ लगाना,
फिर आगे जाकर उसी पानी पर
पत्तों और लकड़ियों से मिट्टी का बाँध बनाना।

जामुन का बड़ा सा पेड़,
जो धूप से पूरे दिन बचाए रखता था,
जैसे हम उसके अपने बच्चे हों।
नाश्ते में बाबा जी का खुद से चुना हुआ तरबूज,
उससे मीठा जीवन में कुछ चखा नहीं।

सरकंडे की लकड़ी से बना झुनझुना,
जो उन्होंने दिया था,
सालों-साल उनकी याद दिलाता है,
उस जैसा मज़ा किसी और खिलौने ने दिया नहीं।

आम के बाग में सबके साथ खुद से आम तोड़ कर खाना,
पापा की ऊँगली पकड़ कर देखने गए नदी के पास वाला खेत,
जो ख़ुशी की चमक आँखों में आयी थी,
वो फिर किसी चीज़ को देख कर आयी नहीं।

अपने ही खेत में सूरजमुखी के फूलों संग खिंची तस्वीर में
जो मुस्कान थी, वो किसी और फोटो में दिखी नहीं।

ज़िन्दगी की भागदौड़ में कभी-कभी मन करता है,
कि सब ठहर जाए,
और मैं लौट जाऊं,
वो सुकून एक बार फिर से जी आऊं।

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